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खरीफ की फसल

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

स्वीट कॉर्न की खेती से किसानों को काफी लाभ होगा, सिर्फ इन बातों का रखें खास ख्याल

स्वीट कॉर्न की खेती से किसानों को काफी लाभ होगा, सिर्फ इन बातों का रखें खास ख्याल

कृषक भाई स्वीट कॉर्न की खेती कर के शानदार मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। भारत ही नहीं विदेशों में भी इसे काफी पसंद किया जाता है। चाहें कैसा भी मौसम हो स्वीट कॉर्न का स्वाद सब की जुबां पर रहता है। विशेष तौर पर पहाड़ों की सेर के समय और बारिश के दौरान स्वीट कॉर्न को बड़े ही चाव से खाया जाता है। बतादें, कि स्वीट कॉर्न मक्के की मीठी किस्म है। इसकी फसल के पकने से पूर्व ही दूधिया अवस्था में इसकी कटाई की जाती है। स्वीट कॉर्न भारत के साथ-साथ विदेश में भी बेहद पसंद किया जाता है। ऐसी स्थिति में किसान भाई इसकी खेती कर बेहतरीन मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

स्वीट कॉर्न की खेती किस तरह होती है

स्वीट कॉर्न की खेती मक्का की खेती की भांति ही होती है। स्वीट कॉर्न की खेती में मक्का की फसल पकने से पूर्व ही तोड़ दी जाती है। इस वजह से किसानों को बेहद शीघ्रता से अच्छी कमाई मिलती है। स्वीट कॉर्न के साथ-साथ फूलों की खेती करके किसान एक ही वक्त में दो गुना ज्यादा धन कमाने के लिए गेंदा, ग्लेडियोलस एवं मसालों की सहफसली खेती भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप एक खेत में पालक, मटर, गोभी और धनिया भी उगा सकते हैं।

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स्वीट कॉर्न को अधिक समय तक स्टोर करके ना रखें

स्वीट कॉर्न की फसल कटाई एक बेहद ही आसान प्रक्रिया है। बतादें, कि फसल कटाई के लिए तैयार तब होती गई जब भुट्टों से दूधिया पदार्थ निकलने लगता है। सुबह अथवा शाम में स्वीट कॉर्न की कटाई करें, इससे फसल अधिक समय तक तरोताजा रहेगी। तुड़ाई पूर्ण होने पर इसको मंडियों में बेच दें। स्वीट कॉर्न को ज्यादा दिनों तक स्टोर करके न रखें, क्योंकि इससे इसकी मिठास कम हो जाएगी।

 

किसान इन बातों का विशेष ख्याल रखें

  • जब आप इसकी खेती करते हैं, तो आप मक्का की उन्नत किस्मों को ही चुनें।
  • कीट-रोधी किस्मों को कम समयावधि में पकना चाहिए।
  • खेत की तैयारी के दौरान जल निकासी की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करें, ताकि फसल में जल भराव न हो।
  • स्वीट कॉर्न वैसे तो संपूर्ण भारत में उगाई जाती है, परंतु उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा पैदावार होती है।
  • स्वीट कॉर्न की बुवाई रबी एवं खरीफ दोनों ही सीजनों में की जा सकती है।

Soyabean Tips: लेट मानसून में भी पैदा करना है बंपर सोयाबीन, तो करें मात्र ये काम

Soyabean Tips: लेट मानसून में भी पैदा करना है बंपर सोयाबीन, तो करें मात्र ये काम

देश में इस साल मानसून की असामान्य गतिविधि देखी जा रही है। कहीं पानी तो कहीं गर्मी सूखे के कारण, कृषक तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो फसल कब और कौन सी बोएं। आम तौैर पर मानसून आधारित औसतन कम पानी की जरूरत वाली खरीफ की फसलों में शामिल, सोयाबीन की किस्मों पर किसान यकीन करते हैं।

असामान्य स्थिति

बारिश जनित असमान्य स्थितियों के कारण इस साल सोयाबीन खेती आधारित पैदावार क्षेत्रों में मानसूनी वर्षा के आगमन एवं फैलाव में स्थितियां पिछले सालों की तुलना में अलग हैं। कुछ जगहों के कृषक मित्र सोयाबीन की खेती शुरू कर चुके हैं, जबकि कुछ इलाकों के किसान सोयाबीन की बुआई के लिए अभी भी पर्याप्त वर्षा जल का इंतजार कर रहे हैं। मतलब इन इलाकों की सोयाबीन बुआई फिलहाल अभी रुकी हुई है।

ये भी पढ़ें: सोयाबीन, कपास, अरहर और मूंग की बुवाई में भारी गिरावट के आसार, प्रभावित होगा उत्पादन मानसून में हो रही देरी के कारण कृषि वैज्ञानिकों ने सोयाबीन के बीजों के चयन, उनको बोने एवं आवश्यक ध्यान रखने के बारे में कुछ सलाह जारी की हैं।

बुआई के लिए

मानसून की देरी से परेशान ऐसे किसान जिन्होंने अभी तक सोयाबीन की बुवाई नहीं की है, या फिर अभी 3 से 4 दिन पहले ही सोयाबीन बोया है तो उनके लिए यह सलाह काफी अहम है। आम तौर पर वैज्ञानिकों के अनुसार जुलाई महीने के पहले सप्ताह तक का समय सोयाबीन बोवनी के लिए उपयुक्त होता है। इसमें देरी होने पर कृषक ख्याल रखें कि बोवनी क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा (100 मि.मी.) होने पर ही सोयाबीन कि बुवाई का वे जोखिम उठाएं।

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सोयाबीन की किस्म

इस बारे में कृषकों को सलाह दी गई है कि, वे एक ही किस्म की सोयाबीन बोवनी की बजाए खेत में विभिन्न समयावधि में पकने वाली किस्मों की बोवनी करें। इसमें 2 से 3 अनुशंसित किस्मों की सोयाबीन खेती को प्राथमिकता दी जा सकती है।

बीज दर का गणित

बीज ऐसा चुनें जिसकी गुणवत्ता न्यूनतम 70% अंकुरण की हो। इस आधार पर ही बोए जाने वाले बीज दर का भी प्रयोग करें। अंकुरण परीक्षण से सोयाबीन बोवनी हेतु उपलब्ध बीज का अंकुरण न्यूनतम 70 फीसदी सुनिश्चित करने से भी कृषक अपने बीज का परीक्षण कर सकते हैं।

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पद्धति का चुनाव

सोयाबीन के लिए विपरीत माने जाने वाली सूखे कि स्थिति, अतिवृष्टि आदि से संभाव्य नुकसान कम करने सोयाबीन की बोवनी बी.बी.एफ. पद्धति या रिज एवं फरो विधि (Ridge and furrow) से करने की सलाह कृषि वैज्ञानिकों ने दी है।

सोयाबीन बीज उपचार

बोवनी के समय बीज को अनुशंसित तरीके से उपचारित कर थोड़ी देर छाया में सुखाएं | फिर इसके बाद अनुशंसित कीटनाशक से भी उपचारित करें | कृषक रासायनिक फफूंद नाशक के स्थान पर बीजों में जैविक फफूंद नाशक ट्रायकोडर्मा का भी उपयोग कर सकते है। इसे जैविक कल्चर के साथ मिलकर प्रयोग किया जा सकता है।

खाद का संतुलन

किसान सोयाबीन की फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश व सल्फर की पूर्ति केवल बोवनी के वक्त करें।

बोवनी वक्त दूरी

सोयाबीन की बोनी के लिए 45 से.मी. कतारों की दूरी अनुपालन की अनुशंसा की जाती है। बीज को 2 से 3 से.मी. की गहराई पर बोते हुए पौधे से पौधे की दूरी 5 से 10 सेमी रखने की सलाह कृषि वैज्ञानिक देते हैं। कृषि वैज्ञानिकों की सलाह है कि, सोयाबीन बीज दर 65 से 70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करने से बेहतर पैदावार होगी।
किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

जैसा कि आप सभी को पता होगा कि महाराष्ट्र सोयाबीन (soyabean) का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। विटामिन और प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से‌ गजब का फायदेमंद है। विश्वस्त सूत्रों द्वारा ज्ञात हुआ है कि वर्तमान समय में सोयाबीन को किसी की नजर लग गयी है। दरअसल, सोयाबीन की फसल पर केवड़े रोग (Bacterial blight of soybean) का भयानक प्रकोप हुआ है। अचानक ऐसी गंभीर, भयावह व दुर्लभ स्थितियों से सामना ‌करना किसानों को भारी‌ पड़ रहा है। संकट की‌ इस घड़ी में बौखलाए हुए किसानों ने जिला प्रशासन से मदद की गुहार लगायी है। आखिरकार, परिस्थितियों के मारे इन किसानों के पास अन्य कोई चारा भी तो नहीं है। ‌‌‌‌‌‌‌‌वैसे, खरीफ की फसल की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। बारिश की अनियमितता की वजह से किसानों का तो मानो सारा का सारा कारोबार ही ठप पड़ गया है। इन दिनों‌ किसान बेहद घाटे में चल रहे हैं। लगातार दिन रात अनवरत बारिश की वजह से खेती और खेतिहर दोनों ही बुरी तरह से आहत हुए हैं। दरअसल, किसान सोयाबीन की फसलों से काफी उम्मीदें लगाए बैठे थे। किंतु यहाँ तो पासा ही पलट गया है। केवड़ा (केवडा रोग) रोग के कीटों ने तो सोयाबीन की फसलों को पूर्ण रूप से ही बर्बाद कर के रख दिया है। किसानों के अनेकों बार जिला प्रशासन से गुहार लगाने के बावजूद अभी‌ तक कोई हल नहीं निकल पाया है। किंतु उम्मीद पर दुनिया कायम है। यथा शीघ्र कृषि क्षेत्र से संबंधित इन कठिन समस्याओं पर नियंत्रण अवश्य किया जाएगा। किसानों को निराश एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल कभी कभी‌ प्रकृति भी‌ बेरहम हो जाती है। अगर देखा जाए तो मौसम का भी‌ फसलों‌ पर जबरदस्त असर पड़ता है। सोयाबीन के फसलों से‌ किसान बहुत अच्छी कमाई कर लेते हैं। ‌‌‌‌‌लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से ऐसा लगता है मानो इन किसानों के सारे किए कराये पर पानी फिर गया हो‌। कीटों से बचाव के लिए कृषि विभाग वालों ने आवश्यक निर्देश दिए हुए हैं।

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किसानों ने पौधों में दवाइयों के छिड़काव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किसान सचेत हैं। कहीं ना कहीं उन्हें भय है कि कहीं फसल फिर से दूसरी बार भी ना खराब हो जाए। किसानों ने केवड़ा रोग‌ के प्रकोप से निजात पाने के लिए कृषि विभाग से तथाकथित नुकसान के एवज में मुआवजे की मांग की है। जहाँ एक ओर केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल बुरी तरह से ग्रस्त ‌है, वहीं दूसरी‌ ओर खरीफ की फसलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारणों से अचानक इन फसलों पर कीट- फतिंगों की बाढ़ सी आ गयी है। कुल मिलाकर स्थिति बेहद चिंताजनक है। सोयाबीन के लहलहाते फूलों को देखकर किसानों के मन में उम्मीद‌ की एक छोटी सी‌ किरण जगी थी। किंतु, घनघोर बारिश और उस पर से पसीना छुड़ा देने वाली गर्मी की वजह से सब कुछ अनायास ही बर्बादी के कगार पर चला गया है। किसानों की स्थिति बेहद ही दयनीय हो चुकी‌ है।

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आपके जेहन में अब यह सवाल अवश्य उठ रहा होगा कि इतना सब कुछ बिगड़ जाने के बावजूद भी जिला प्रशासन आखिर खामोश क्यों है ??? पर, ऐसा कुछ भी‌ नहीं है। कृषि विभाग वालों ने किसानों को आश्वासन दे दिया है। सही समय में, सही स्थान पर, कृषि विभाग द्वारा अनुमोदित दवाइयों को ही छिड़काव करने का निर्देश जारी‌ किया गया है। कृषि विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गये प्रमाणित खाद एवं बीजों को ही इस्तेमाल करने की सलाह दी गयी है।‌ संक्रमित फसलों को हटाकर कहीं अन्यत्र फेंकने का प्रावधान किया गया है। दरअसल, बारिश के मौसम में साफ सफाई के बिना गंदगी में किटाणुओं का तीव्र गति से पनपना तो लाजिमी है। कहा जाता है कि जुलाई और अगस्त में महाराष्ट्र के नांदेर जिले में इतनी अधिक बारिश हुई‌ की खेत खलिहानों‌ में पानी का बहाव पर्याप्त समय सीमा से ऊपर आ गया। जिसकी वजह से आम जन जीवन काफी हद तक प्रभावित हो गया है। किसानों पर तो मानो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है। पर, आश्चर्य वाली बात यह है कि अधिकांश इलाकों में तो दूर दूर तक बारिश का नामो निशां तक नहीं है। परिणामस्वरूप फसलों का अधिकांश हिस्सा लगभग बर्बाद हो गया है।

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कुदरत का भी अजीब करिश्मा है। कहीं तो पानी की‌ बहुतायत है। तो कहीं बिना पानी फसल सूख सूख कर झड़ रही हैं। जो भी हो किसानों को ऐसे संकट की घड़ी में अपने आत्मबल को कायम रखना चाहिए। सरकार कदम कदम पर आपके साथ है। यदि एकजुट होकर आप समस्याओं से निपटेंगे, तो सफलता निश्चित है। आने वाली सुबह आपके लिए ढेर सारी खुशियाँ लेकर आएगी। कर्म करते रहिए। आपका परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा।
गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं जैसा कि हम जानते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली अनाज की फसल है। गेंहू विश्व में उत्पादन और सबसे अधिक उगाया जाता है, इसलिए गेहूं को फसलों का राजा कहा जाता है। गेहूं किसी भी अन्य अनाज की तुलना में मिट्टी और जलवायु की अधिक विविधता में खेती करने में सक्षम है और रोटी बनाने, ब्रेड बनाने, मैक्रोनी बनाने और बहुत रूप में उपयोग के लिए भी बेहतर अनुकूल है। गेहूं में एक ग्लूटेन नाम का प्रोटीन जो बेकिंग के लिए आवश्यक होता है। इसलिए ये बेकरी प्रोडक्ट्स बनने के लिए उपयोगी है। हमारे भारत में गेहूं की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। सबसे ज्यादा गेहूं की फसल की खेती उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब में की जाती है। प्रति एकड़ की पैदावार पंजाब में सबसे अधिक है, क्योंकि पंजाब में 100% पानी आधारित खेती होती है।उत्पादन की बात की जाए तो हमें बढ़ती आबादी को देखते हुए 2025 तक गेहूं की मांग को पूरा करने के लिए 117 मिलियन टन गेहूं के उत्पादन करना होगा। इसके लिए हमें उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल करके गेहूं की पैदावार को ज्यादा करना होगा।

खरीफ की फसल की कटाई के बाद कैसे करें जमीन तैयार

खरीफ की फसल कटाई के बाद हमें अपने खेत को हैरो, कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर अच्छी तरह से जोतना है ताकि भूमि में पिछली फसल के अवशेष खतम हो जाएं। इस के बाद हमें अपने खेत में गोबर की खाद डाल देनी है और, एक बार और हैरो चला देनी है जिस से गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाए। गेहूं की फसल बोने से पहले हमें मिट्टी में नमी भी देखनी है, अगर मिट्टी में सही नमी न हो तो हमें खेत में सिंचाई करनी चाहिए ताकि फसल की उपज अच्छी हो। गेहूं की फसल में सीड़ बेड समतल और प्लेन होना चाहिये। गेहूं की फसल में ग्रोथ के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान चाहिये। गेहूं की फसल के लिए काली या दोमट मिट्टी अच्छी पैदावार देती है और मिट्टी का pH मान 5-7 होना चाहिए।

पोषण व्यवस्था कैसे करें

सब से पहले हमें खेत की मिट्टी की जांच करनी है, उस के आधार पर हमें अपने खेत में पोषण तत्व देने हैं। गेहूं की फसल को 40-50 किलो नाइट्रोजन, 25-30 किलो फॉस्फोरस,15-20 किलो पोटास और 10 किलो जिंक और 10 किलो सल्फर डालने से अच्छी पैदावार होती है।

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नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस, पोटाश व जिंक और सल्फर की पूरी मात्रा तथा गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय या अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। कई बार खड़ी फसल में जिंक की कमी दिखने पर इस का स्प्रे भी कर सकते हैं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद एवं दूसरी 40-45 दिन के बाद प्रयोग करें।

बिजाई का उत्तम समय और बीज की मात्रा

नवंबर महीने की 15 - 25 तारीख तक बिजायी का उत्तम समय होता है। 25 नवंबर के बाद हम पछेती किस्मों की बिजाई कर सकते हैं। पछेती बिजाई पर बीज और उर्वरक की मात्रा थोड़ी ज्यादा डालनी पड़ती है, जिससे पछेती फसल की भी अच्छी पैदावार हो सकती है। एक अकड़ के लिए 40 किलो बीज पर्याप्त होता है। कम पानी वाली इलाके में 50 किलो बीज प्रति एकड़ और पछेती बिजाई पर भी 20 किलो बीज सामान्य से ज्यादा लगता है। पौधे से पौधे की दुरी 8 -10 CM होनी चाहिये और कतार से कतार की दूरी 22. 5 CM होनी चाइए। बीज 4 से 5 CM मिट्टी की गहराई में डालना चाहिए। इन नई किस्मों, जिन्हें DBW-316, DBW-55, DBW-370, DBW-371 और DBW-372 नाम दिया गया है। भारतीय कृषि परिषद की गेहूं और जौ की प्रजाति पहचान समिति द्वारा अनुमोदित किया गया है। इन किस्मो का चुनाव कर के किसान अच्छी पैदावार ले सकते है।

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सिचाई प्रबंधन

फसल में हल्की मिट्टी में करीब 6 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। वहीं दोमट मिट्टी में करीब 8 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। अगर हमारी जमीन में पर्याप्त जल उपलब्ध है, तो हमें फसल में 5 से 6 बार सिंचाई करनी चाहिए। सिचाई की अवधियाँ इस प्रकार हैं। पहली सिंचाई मुख्य जड़ विकास (CROWN ROOT INITATION ) - 21 -25 दिन की हो जाने पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है। इस स्टेज पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इस स्टेज के नाम से ही पता चल रहा है कि 21 दिन बाद फसल में नई जड़ का विकास होता है। अगर इस समय पर फसल को पानी नहीं मिलता है तो फसल की पैदावार बिल्कुल घट जाती है। इस लिए कई स्थानों पर जहाँ पानी की कमी है, केवल एक सिंचाई संभव है, तो किसान इस स्टेज की फसल की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई 40 -45 दिन की फसल हो जाने पर करनी चाहिए। इस समय फसल में टिलर्स बनते हैं, यानि की फसल में फुटाव होता है। तीसरी सिंचाई 60- 65 दिन पर करनी होती है। इस समय फसल पर गेहू का विकास बिंदु भूमि की सतह से ऊपर जाता है और फसल का पूर्ण विकास होता है। चोथी सिंचाई 80 -85 दिन बाद करते हैं। इस समय पर फसल में बालियाँ बननी शुरू हो जाती हैं। इस को बूट चरण भी बोलते हैं, तब शुरू होता है जब फ्लैग लीफ के अंदर बालियाँ बनने लगती हैं । दुग्ध विकास चरण 100 - 105 दिन बाद सिंचाई करते हैं। ये फूल आने के पूरा होने के बाद शुरू होता है और प्रारंभिक गठन चरण होता है। इसे अर्ली, मीडियम और लेट मिल्क में बांटा गया है। विकासशील एंडोस्पर्म एक दूधिया तरल पदार्थ के रूप में शुरू होता है, जो बाद में दाने बन जाते हैं। इस समय पर फसल में पानी देने से दाने मोटे हो जाते हैं, जिससे फसल की पैदावार बढ़ जाती है।

फसल में खरपतवार नियंत्रण

सब से पहले हमें अपने खेत का निरीक्षण करके देखना है, कि हमारे खेत में किस प्रकार के खरपतवार हैं। फिर उस आधार पर हमें दवा का छिड़काव करना है। डोज के आधार पर ही हमें खेत में दवा का छिड़काव करना है। रेकमेंडेड डोज से ज्यादा अगर किसी भी खरपतवार नाशी का प्रयोग किया जाये तो वो फसल को भी जला सकते हैं।

संकरी पत्ती वाले खरपतवार

मंडूसी अथवा गुल्ली डंडा अथवा गेहूं का मामा खरपतवार और जंगली जई को मारने के लिए खरपतवार नासी स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें। मेटासुलफूरों 2 किलो डब्ल्यूपी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

बथुआ, जंगली पालक, मोथा के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। टू फोर डी ईस्टर साल्ट का प्रयोग भी फसल के 30 - 35 दिन बाद की हो जाने पर करना चाहिये नहीं तो फसल में ग्रेन मलफोर्मेशन की दिक्क्त आ सकती है।

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फसल में रोग प्रबंधन

पूर्ण रतुआ /भूरा रतुआ रोग का पहला लक्षण पत्तियों पर अनियमित रूप से सूक्ष्म, गोल, नारंगी छोटे छोटे गोल दभ्भे का दिखना है। पत्तियों में गंभीर जंग लगने से उपज में कमी आती है, रोग आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े या फरवरी के पहले सप्ताह में प्रकट होता है। रोग इष्टतम 15-2oC के साथ 2-35oC के तापमान रेंज में दिखायी दे सकता है।

धारीदार रतुआ या पीला रतुआ

रोग मुख्य रूप से पत्तियों पर दिखायी देता है, हालांकि पत्ती के आवरण, डंठल और बालियां भी प्रभावित हो सकती हैं। नींबू के पीले रंग के छोटे-छोटे दाने लंबी पंक्तियों में व्यवस्थित होते हैं, जो धारियों का पैटर्न देते हैं। जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर दिसंबर या मध्य जनवरी के अंतिम सप्ताह में दिखायी देते हैं। बाद के चरणों में पत्तियों की निचली सतह पर फीकी काली धारियाँ बन जाती हैं। प्रभावित पौधों में दाने हल्के और सिकुड़े हुए हो जाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।

काला रतुआ

रतुआ संक्रमण का पहला लक्षण पत्तियों, पर्णच्छदों, कल्मों और फूलों की संरचनाओं का छिलना है। ये धब्बे जल्द ही आयताकार, लाल-भूरे रंग के रूप में विकसित हो जाते हैं। जब बड़ी संख्या में स्पोर्स फटते हैं और अपने बीजाणु छोड़ते हैं, तो पूरी पत्ती का ब्लेड और अन्य प्रभावित हिस्से दूर से भी भूरे रंग के दिखाई देंगे।

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तीनों रतुआ का उपाय :

  • देर से बुआई करने से बचें।
  • नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें।
  • प्लांटवैक्स @ 0.1% के साथ बीज ड्रेसिंग के बाद एक ही रसायन के साथ दो छिड़काव।
  • 15 दिनों के अंतराल पर जिनेब @ 0.25% या मैनकोजेब @ 0.25% या प्लांटावैक्स @ 0.1% के साथ दो या तीन बार छिड़काव करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
  • रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

करनाल बंट

खेत में करनाल बंट के लक्षणों को पहचानना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि किसी दिए गए सिर पर संक्रमित गुठली की घटना कम होती है। लक्षण कटाई के बाद बीज पर सबसे आसानी से पाए जाते हैं।

लूज स्मट

यह रोग आंतरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है तथा संक्रमित बीज ऊपर से देखने में बिल्कुल स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग से प्रति वर्ष उत्तर भारत में गेहूं की उपज में 1-2 प्रतिशत की हानि होती है। बुवाई से पहले बीज को वीटावैक्स 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। संक्रमित कानों को मिट्टी के अंदर दबा दें |
Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

दूध की नदियां बहाने वाला देश और सोने की चिड़िया उपनामों से विख्यात, भारत देश के अंग्रेजों के राज में इंडिया कंट्री बनने के बाद, देश में सनातन शिक्षा विधि, स्वास्थ्य रक्षा, कृषि तरीकों एवं सांस्कृतिक विरासत का व्यापक पतन हुआ है।

आलम यह है कि, कालगणना (कैलेंडर), ऋतु चक्र जैसे विज्ञान से दुनिया को परिचित कराने वाले देश में, आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करना पड़ रहा है।

घर-घर गौपालन करने वाले भारत में सरकार को सार्वजनिक गौशाला बनाना पड़ रही हैं। पुरातन इतिहास में एक नहीं बल्कि ऐसे कई प्रमाण हैं कि कृषि प्रधान भारत में गौ आधारित कृषि को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था। जैविक तरीकों की आधुनिक खेती में अब गौवंश के महत्व को स्वीकारते हुए, गौमूत्र एवं गाय के गोबर का प्रचुरता से उपयोग किया जा रहा है।

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सरकारें भी गौपालन के लिए नागरिक एवं कृषकों को प्रेरित कर रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो किसान एवं पंचायत समितियों से गौमूत्र एवं गाय का गोबर खरीदने तक की योजना को प्रदेश मे लागू कर दिया है।

क्यों पूजनीय है गौमाता

गौमाता के नाम से सम्मानित गाय को भारत में पूजनीय माना जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास मानकर गौमाता की पूजा अर्चना की जाती है। प्रमुख त्यौहारों खासकर दीपावली के दिन एवं अन्नकूुट पर गाय का विशिष्ट श्रृंगार कर पूजन करने का भारत में विधान है।

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हिंदू पूजन विधियों में गौमय (गोबर) तथा गोमूत्र को भारतीय पवित्र और बहुगुणी मानते हैं। गाय के गोबर से बने कंडों का हवन में उपयोग किया जाता है। वातावरण शुद्धि में इसके कारगर होने के अनेक प्रमाण हैं। अब तक अपठित सिंधु-सरस्वती सभ्यता में गौवंश संबंधी लाभों के अनेक प्रमाण मिले हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी एवं वैदिक सभ्यता में गौ आधारित किसानी से स्पष्ट है कि भारत में गौ आधारित कृषि कितनी महत्वपूर्ण रही है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़े अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार इस सभ्यता काल में मानव बस्तियों के साथ खेत, अनाज की प्रजातियों आदि के बारे में कृषकों ने काफी तरक्की कर ली थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी अब तक प्राप्त हुई मुद्राओं में बैल के चित्र अंकित हैं। इससे इस कालखंड में गाय-बैल के महत्व को समझा जा सकता है।

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खेत, जानवर, गाड़ी/ गाड़ी चालक, यव (बार्ली), चलनी, बीज आदि संबंधी चित्र भी इस दौर की कृषि पद्धति की कहानी बयान करते हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अब तक प्राप्त प्रमाणों में अनाज का संग्रह करने के लिये कोठार (भंडार) की भी पुष्टि हुई है। संस्कृत लिपि में प्रयोग में लाए जाने वाले लाङ्गल, सीर, फाल, सीता, परशु, सूर्प, कृषक, कृषीवल, वृषभ, गौ शब्द अपना इतिहास स्वयं बयान करने के लिए पर्याप्त हैं।

 वैदिक संस्कृत और आधुनिक फारसी में भी बहुत से साम्य हैं। फारसी में उच्चारित गो शब्द का मूल अर्थ गाय से ही है। मतलब गाय भारत में पनपी कई संस्कृतियों का अविभाज्य अंग रही है। गाय के गोबर का खेत में खाद, मकान की लिपाई-पुताई में उपयोग भारत में विधि नहीं बल्कि परंपरा का हिस्सा है। रसोई में चूल्हे को सुलगाने से लेकर पूजन हवन तक गाय के गोबर के कंडों की अपनी उपयोगिता है। गाय की उपयोगिता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि पुरातन कृषि मेें गौपालक को दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी का पौष्टिक आहार प्राप्त होता था वहीं खेती कार्य के लिए तगड़े बैल भी गाय से प्राप्त होते थे।

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खेत में हल जोतने, अनाज ढोने, गाड़ी खींचने के लिये बैलों का उपयोग पुराने समय से भारत में होता रहा है। खेत की सिंचाई के लिए रहट चलाने में भी बैलों की तैनाती रहती थी।

कभी चलता था 24 बैलों वाला हल गौवंश से मिली इंसान, शहर को पहचान कामधेनु करे इतनी कामनाओं की पूर्ति

24 बैलों वाला हल

कई हॉर्स पॉवर वाले आज के प्रचलित आधुनिक ट्रैक्टर का काम पुराने समय में बैल करते थे। पुरातन ग्रंथों में दो, छह, आठ, बारह, यहां तक कि, 24 बैलों वाले भारी भरकम हलों का भी उल्लेख है।

गाय के नाम अनेक

आपको अचरज होगा कि अनेक शब्दों, नामों का आधार गाय से संबंधित है। गोपाल, गोवर्धन, गौशाला, गोत्र, गोष्ठ, गौव्रज, गोवर्धन, गौधूलि वेला, गौमुख, गौग्रास, गौरस, गोचर, गोरखनाथ (शब्द अभी और शेष हैं) जैसे प्रतिष्ठित शब्दों की अपनी विशिष्ट पहचान है। उपरोक्त वर्णित शब्दों से उसकी प्रकृति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है। जैसे गौधूली बेला से सूर्यास्त के समय का भान होता है, इसी तरह गाय के बछड़े को वसु कहा जाता है। इससे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम वसुदेव रखा गया। हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार दीपावली के कुछ दिन पहले वसुबारस मनाकर गौवंश का पूजन कर पशुधन के प्रति कृतज्ञता जताई जाती है।

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ऋग्वेद काल में भी रथों में बैल जोतने का जिक्र है। मतलब गाय कृषक, कृषि के साथ ही ग्राम वासियों का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से सहयोगी रही है। गाय और बैल पुरातन काल से भारतीय जनजीवन का आधार रहे हैं। गाय की इन बहुआयामी उपयोगिताओं के कारण ही गौमाता को ‘कामधेनु’ भी कहा जाता है। मानव की इतनी सारी कामनाएं पूरी करने वाली बहुउपयोगी ‘कामधेनु’ (इच्छा पूर्ति करने वाली गाय) वर्तमान मशीनी युग (कलयुग) में और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।

गबरबंद

प्राचीन भारत में पानी रोकने के लिए मिट्टी पत्थर से बनाए जाने वाले गबरबन्द को बनाने में गोबर, मिट्टी, घासफूस का उपयोग किया जाता था। महाभारत में गायों की गिनती से संबंधित घोषयात्रा, गोग्रहण का भी उल्लेख है।

गौ अधारित खेती एवं फसल चक्र

भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम जहां गौवंश पर आधारित वसुदेव है, वहीं उनके भाई बलराम को ‘हलधर’ भी कहा जाता है। हल बलराम का अस्त्र नहीं, बल्कि कृषि कार्य में उपयोगी था। इससे उस कालखंड की खेती-किसानी के तरीकों का भी बोध होता है।

चक्र का महत्व समझिये

प्राचीन भारत में बैल गाड़ियों में प्रयुक्त होने पहिये, कुएं से पानी खींचने के लिये रहट में लगने वाला चक्र, कोल्हू के बैल की चक्राकार परिक्रमा के अपने-अपने महत्व हैं। मतलब कृषि की सुरक्षा में भी चक्र महत्वपूर्ण है। खेती के महत्वपूर्ण चक्र को काल या ऋतु चक्र कहा जाता है। 

 भारत के पूर्वज किसानों ने साल में मौसम के बदलाव के आधार पर फसल चक्र का तक निर्धारण कर लिया था। ऋतुचक्र के मुताबिक ही किसान रवि और खरीफ की फसल का निर्धारण करते आए हैं। बीज बोने, क्यारी बनाने आदि में गौवंश का उल्लेखनीय उपयोग होता आया है। गौ एवं पशु पालन के लिए भी ऋतु चक्र में पूर्वजों ने बहुमूल्य व्यवस्थाएं की थीं। फसल चक्र का खेती, कृषि पैदावार के साथ ही गौ एवं अन्य पशु पालन से पुराना बेजोड़ नाता रहा है।

गौ अधारित खेती

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में गौपालन, गोकुल और बृंदाबन से जुड़ी बातें गौपालन के महत्व को रेखांकित करती हैं। पुरातन व्यवस्था में पालतू गायों का दूध, दही, मक्खन जहां अर्थव्यवस्था की धुरी था वहीं खेती में भी गाय की भूमिका अतुलनीय रही है। मानव उदर पोषण हेतु अनाज की पूर्ति के लिए गौ एवं पशु-पालन के साथ खेती किसानी के मिश्रित प्रबंधन का भारत में इतिहास बहुत पुराना है। गाय-बैलों के पालन का प्रबंध, खाद बनाने में गौमूत्र एवं गोबर का उपयोग, बीजारोपण, सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण आदि के लिए भारतवासी पुरातनकाल से गौवंश का बखूबी उपयोग करते आए हैं।

धान की खेती की शुरू से लेकर अंत तक संपूर्ण जानकारी, जानिए कैसे बढ़ाएं लागत

धान की खेती की शुरू से लेकर अंत तक संपूर्ण जानकारी, जानिए कैसे बढ़ाएं लागत

हमारा देश भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां की लगभग एक तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। भारत में अनेक प्रकार की फसलें बोई जाती हैं। प्रत्येक फसल के बोने व काटने का समय अलग अलग होता है। इसी प्रकार धान की भी फसल है जो एक प्रकार की खरीफ की फसल है। यह हमारे देश को लोगों का एक प्रमुख खाद्यान्न है। इसके अलावा मक्का के बाद जो फसल सबसे ज्यादा बोई जाती है वो धान है। अगर इसकी खेती में पर्याप्त सावधानी बरती जाए तो इससे किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकता है। धान की खेती की संपूर्ण जानकारी ।

धान की खेती में सबसे महत्वपूर्ण कार्य

धान की खेती में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है अच्छे बीज का चयन करना। कई बार किसान महंगे बीज खरीदने के बावजूद भी अच्छी फसल नहीं उगा पता। इसका मुख्य कारण है उसके द्वारा एक स्वस्थ बीज का चयन ना कर पाना। इसके कारण चुना गया बीज महंगा नहीं बल्कि वहां की जलवायु के अनुरूप होना चाहिए। हम जानते हैं कि धान की खेती हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में की जाती है। विभिन्न हिस्सों की। जलवायु भी भिन्न भिन्न होती है इसके लिए किसानों को वहां की जलवायु के हिसाब से उन्नत बीजों का चयन करना चाहिए।

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बुवाई का समय :-

धान की फसल एक प्रकार की खरीफ की फसल है जो मुख्य रूप से बरसात शुरू होने के पहले बोई जाती है। यह फसल मई की शुरुआत में बोई जाती है, ताकि मानसून आते ही किसान धान की रोपाई शुरू कर दें। धान की फसल में मुख्य रुप से ध्यान रखने योग्य बात बीज का शोधन है इसमें किसान कई महंगे बीजों को खरीद कर फसल में अच्छी लागत नहीं पा पाते। इसके लिए किसानों को उच्च गुणवत्ता के बीच के साथ बीजों का उपचार भी करना चाहिए।

बीजोपचार :-

आज की खेती में मुख्य बात बीजों का चयन करना है एवं बीजों का शोधन है। किसानों को बीजों के शोधन के प्रति जागरूक होना चाहिए ऐसा करने से धान की फसल को विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है धान की 1 हेक्टेयर की रोपाई के लिए बीज शोधन की प्रक्रिया में सिर्फ 25-30 खर्च करने होते हैं। ये भी पढ़े: धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी बीज उपचार करने के लिए हमें एक घोल तैयार करना होता है। इस घोल को तैयार करने के लिए एक बर्तन में 10 लीटर पानी लेते हैं और उसमें लगभग 1.5 किलो नमक मिलाते हैं अब इस पानी ने एक आलू या फिर एक अंडा डालते हैं अगर आलू घील पर तैरने लगे तो समझ जाओ कि हमारा होल तैयार हो गया है और अगर आलू या अंडा घोल पर नहीं तैरता है तो पानी में उस समय तक नमक मिलाते रहें जब तक कि आलू घोल तैरने ना लगे। अब इस घोल में धीरे-धीरे करके धान के बीज डालते हैं जो भी इस घोल के ऊपर तैरने लगते हैं बेबीज कम गुणवत्ता के होते हैं उन्हें निकाल कर बाहर फेंक देना चाहिए और जो भी बोल में डूब जाते हैं वह बीज बुवाई के योग्य होते हैं। इस गोल के माध्यम से हम धान के बीजों का शोधन तीन से चार बार तक कर सकते हैं। बीजों का शोधन करने के बाद प्राप्त बीजों को तीन से चार बार पानी में अच्छी तरह से धो लेना चाहिए।

क्षेत्र के हिसाब से धान की उन्नत किस्मों का चुनाव :-

हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की मिट्टी और जलवायु पाई जाती है ऐसे में धान की अच्छी फसल पाने के लिए क्षेत्र के हिसाब से बीजों का चयन भी एक प्रमुख कार्य है इसके लिए उस क्षेत्र की जलवायु के हिसाब से बीजों का चयन किया जाता है।

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बीज की बुवाई/पौधों की रोपाई :-

बीजों की बुवाई के लिए सबसे पहले जमीन को बीजों की बुवाई के योग्य बनाया जाता है। इसके लिए किसान एक नर्सरी तैयार करें और मुख्य खेत में रोपाई करें। सबसे पहले किसान पौधों को नर्सरी में तैयार करें इसके बाद उसे जड़ से उखाड़ कर खेत में ले जाकर उसकी रोपाई करें रोपाई में पौधों की बीच की दूरी का ध्यान रखना चाहिए। एक जगह पर एक से दो पौधों की ही रोपाई की जाए।

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जिस खेत में पानी ना भरता हो उस खेत में धान की रोपाई श्रीविधि से करें। इस विधि में खेत में पानी ना भरने दें इसमें खेत की समय-समय पर सिंचाई करते रहें इस विधि में सिंचाई करने के लिए गेहूं के जैसे ही सिंचाई करें। और धान का प्रबंधन सभी धान की तरह करें।
खरीफ के सीजन में यह फसलें देंगी आप को कम लागत में अधिक फायदा, जानिए इनसे जुड़ी बातें

खरीफ के सीजन में यह फसलें देंगी आप को कम लागत में अधिक फायदा, जानिए इनसे जुड़ी बातें

हम जानते हैं कि खरीफ की फसल बोने का समय चल रहा है। इस मौसम में किसान खरीफ की विभिन्न फसलों से काफी लाभ कमाते हैं और बारिश के मौसम में किसान सिंचाई की लागत से बच सकते हैं। जून का आधा महीना बीत चुका है और जुलाई आने वाला है। ऐसे में यह समय खरीफ की फसलें बोने के लिए उपयुक्त माना जाता है। किसान इस समय में औषधीय पौधों की खेती करके भी अधिक लाभ कमा सकते हैं। क्योंकि यह मौसम औषधि पौधों के लिए उपयुक्त माना जाता है। अभी खरीफ की फसलें बोने का समय चल रहा है। इसमें किसान धान, मक्का, कपासबाजरा और सोयाबीन जैसी विभिन्न फसलों की खेती में करते हैं। मानसून आने के साथ ही इन फसलों की रोपाई बुवाई में तेजी आई है। ऐसे में कुछ किसान उपरोक्त खरीफ की फसलें उगा रहे हैं और कुछ किसान इससे हटकर कई औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं। ऐसा करने का किसानों का उद्देश्य केवल कम लागत में अधिक मुनाफा प्राप्त करना है। औषधीय पौधों की खेती करने से किसान को अधिक लाभ मिलता है। वही सरकार के द्वारा किसानों को मदद भी दी जाती है। इस वजह से किसानों का ध्यान औषधीय पौधों की खेती करने की और अग्रसर हो रहा है।

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देश के किसान इस समय मेडिसिनल प्लांट्स की खेती भी कर रहे हैं। इनकी मांग बाजार में अधिक होने के कारण किसानों को इनकी अच्छे दाम मिलते हैं। वहीं किसानों को सरकारी मदद भी मिलती है। इस समय जिन औषधीय पौधों की खेती की जा सकती है, उनमें सतावर, लेमन ग्रास, कौंच, ब्राह्मी और एलोवेरा प्रमुख रूप से हैं।

कौंच की खेती करने से फायदा :-

कौंच एक झाड़ीनुमा पौधा होता है, जो कि मैदानी क्षेत्र में पाया जाता है। इस पौधे की खेती किसान 15 जून से लेकर 15 जुलाई के बीच में कर सकते हैं। 1 एकड़ में कौंच की खेती करने में करीब 50 से 60 हजार रुपए का खर्च आता है जबकि कमाई प्रति एकड़ 2 से 3 लाख रुपए तक होती है। इसकी बुवाई के लिए प्रति एकड़ 6 से 8 किलो बीज की जरूरत होती है।

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ब्राह्मी की खेती की जानकारी :

ब्राह्मी का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की दवाएं बनाने में किया जाता है। यह एक लोकप्रिय औषधीय पौधा है। इसकी खेती करने के लिए बारिश कम समय सबसे उपयुक्त माना जाता है। यह एक ऐसा पौधा है जिसकी डिमांड हाल ही के वर्षों में काफी बढ़ी है। किसान इस वक्त ब्राह्मी के साथ एलोवेरा की खेती भी कर सकते हैं। इसकी खेती जुलाई से लेकर अगस्त के बीच में की जाती है। कई कंपनियां इस पौधे की खेती करने के लिए किसानों को सीधे कॉन्ट्रैक्ट देती हैं।

सतावर की खेती से किसानों को लाभ :

खरीफ के मौसम में किसान सतावर और लेमनग्रास जैसे औषधीय पौधों की खेती कर सकते हैं। दोनों की खेती अलग अलग समय पर की जाती है। लेमनग्रास की खेती के लिए फरवरी से लेकर जुलाई तक का समय उपयुक्त होता है। लेकिन शतावर के लिए अगला पखवाड़ा सबसे उपयुक्त माना जाता है। सतावर की खेती से किसान काफी अधिक फायदा कमाते हैं। वहीं लेमनग्रास की खेती करने से यह फायदा होता है कि इसे एक बार लगाने पर किसान इससे कई साल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।
किसान भाई ध्यान दें, खरीफ की फसलों की बुवाई के लिए नई एडवाइजरी जारी

किसान भाई ध्यान दें, खरीफ की फसलों की बुवाई के लिए नई एडवाइजरी जारी

नई दिल्ली। खरीफ की फसलों की बुवाई के लिए नई एडवाइजरी जारी हो गई है। किसान भाई ध्यान से इस नई एडवाइजरी के बारे में विस्तार से जानें. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने किसानों को चारे और सब्जियों की फसल की अच्छी खेती को लेकर एडवाइजरी जारी की है। 

एडवाइजरी के अनुसार यह समय चारे की फसल ज्वार की बुवाई के लिए उपयुक्त है। खेत में पर्याप्त नमी को ध्यान में रखते हुए किसान पूसा चरी-9, पूसा चरी-6 या अन्य सकंर किस्मों की बुवाई तत्काल शुरू कर सकते है। 

इसके बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर 40 किलोग्राम से 42 किलोमग्राम तक होनी चाहिए। लोबिया की बुवाई का भी यह ठीक समय है। 

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक इस मौसम में किसान खरीफ प्याज, सेम, पालक, लोबिया, भिंडी, चौलाई आदि सब्जियों की बुवाई कर सकते हैं। 

लेकिन ध्यान रहे कि खेत में पर्याप्त नमी रहे। इसके साथ ही बीज किसी प्रमाणित स्रोत से ही खरीदें, ताकि नकली बीज होने की गुंजाइश कम हो।

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कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो कद्दूवर्गीय सब्जियों की वर्षाकालीन फसल की बुवाई शुरू हो जानी चाहिए। लौकी की उन्नत किस्में पूसा नवीन और पूसा समृद्वि हैं। 

सीताफल की पूसा विश्वास, करेला की पूसा विशेष, पूसा दो मौसमी, पूसा विकास, तुरई की पूसा चिकनी धारीदार, पूसा नसदार तथा खीरा की पूसा उदय, पूसा बरखा आदि किस्मों की बुवाई शुरू कर सकते हैं। हालांकि यह ध्यान रहे कि मिट्टी ऐसी हो जिसमें बीज का जमाव बेहतर ढंग से हो सके।

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बाग लगाने वाले गड्ढ़ों में गोबर की खाद डालें

- जिन गड्ढ़ों में फसल उगाने की तैयारी चल रही है। उनमें गोबर की खाद जरूर डालें, ताकि दीमक तथा सफेद लट से बचा जा सके। 

गोबर की सड़ी-गली खाद के प्रयोग करने से भूमि जल धारण और पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। मिट्टी जांच के बाद उर्वरकों की संतुलित मात्रा का उपयोग करें।

पोटाश की मात्रा जरूर बढ़ाएं

इन फसलों को पानी की आवश्यकता होती है। फसल में पानी की कमी और सूखा से लड़ने के लिए पोटाश (Potash) की मात्रा अधिक होनी चाहिए। वर्षा आधारित एवं बारानी क्षेत्रों में भूमि में नमी के लिए पलवार का प्रयोग करना लाभदायक होगा।

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बारिश की आशंका को देखते हुए सभी किसानों को सलाह दी जाती है कि फसलों पर किसी प्रकार का छिड़काव न करें। साथ ही खड़ी फसलों व सब्जियों एवं नर्सररियों में उचित प्रबंध करें। ------ लोकेन्द्र नरवार

हल्के मानसून ने खरीफ की फसलों का खेल बिगाड़ा, बुवाई में पिछड़ गईं फसलें

हल्के मानसून ने खरीफ की फसलों का खेल बिगाड़ा, बुवाई में पिछड़ गईं फसलें

नई दिल्ली। कहावत है ''बिन पानी सब सून''। वाकई बिना पानी के सब कुछ शून्य है। बारिश बिना खरीफ के आठ फसलों का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है। हल्के मानसून के चलते खरीफ की फसलों की बुवाई पिछड़ती जा रही है।

ये भी पढ़ें: किसान भाई ध्यान दें, खरीफ की फसलों की बुवाई के लिए नई एडवाइजरी जारी पिछले साल के मुकाबले, इस बार खरीफ की फसलों की बुवाई में ९.२७ फीसदी गिरावट हुई है। बुवाई का यह आंकड़ा ४१.५७ हेक्टेयर तक पीछे जा रहा है। साल २०२१ में ४४८.२३ लाख हेक्टेयर जमीन में खरीफ की फसलें बोई गईं थीं, लेकिन इस साल आठ जुलाई तक सिर्फ ४०६.६६ लाख हेक्टेयर फसल बोई गईं हैं। कम बारिश के चलते धान और तिलहन की फसलें सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहीं हैं। महाराष्ट्र, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड के कई क्षेत्रों में कमजोर बारिश के कारण खेती लगातार पिछड़ती जा रही है।

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पंपसेट लगाकर महंगा डीजल फूंककर धान की रोपाई कर रहे किसान

कमजोर मानसून की मार झेल रहे किसान पंपसेट लगाकर धान की रोपाई कर रहे हैं। समय पर धान की रोपाई हो जाए, इसके लिए महंगा डीजल भी फूंक रहे हैं। इससे फसल की लागत बढ़ रही है, जो भविष्य में घाटे का सौदा बन सकती है।

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धान रोपाई की क्या स्थिति है ?

चालू खरीफ सीजन २०२२ में ८ जुलाई तक ७२.२४ लाख हेक्टेयर में धान की रोपाई और बुवाई हो चुकी है। जबकि २०२१ में ८ जुलाई तक यह ९५ लाख हेक्टेयर में बुवाई हो चुकी थी। मतलब इसमें करीब २३.९५ फीसदी की कमी है, जो २२.७५ लाख हेक्टेयर की कमी को दर्शाता है। धान सबसे ज्यादा पानी खपत वाली फसलों में से एक है। इसलिए इसकी रोपाई के लिए किसान आमतौर पर बारिश का ही इंतजार करते हैं।

बुवाई में दलहन आगे तो तिलहन की फसल हैं पीछे

पिछले साल के मुकाबले बात करें तो दलहन की फसलों की बुवाई में ०.९८ फीसदी का इजाफा है। साल २०२१ में कुल दलहन फसलों की ४६.१० लाख हेक्टेयर में बुवाई हुई थी, जबकि इस बार ४६.५५ लाख हेक्टेयर की हो चुकी है। हालांकि, अरहर की बुवाई में २८.५८ परसेंट की गिरावट है। पिछले साल मतलब २०२१ में २३.२२ लाख हेक्टेयर में अरहर की बुवाई हुई थी। जबकि इस बार १६.५८ लाख हेक्टेयर में ही हो सकी है। उड़द की बुवाई में १०.३४ फीसदी की कमी है।

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उधर तिलहन की फसलों की बुवाई में लगभग २०.२६ फीसदी की गिरावट है। साल २०२१ में ८ जुलाई तक ९७.५६ लाख हेक्टेयर में मूंगफली, सूरजमुखी, नाइजर सीड सोयाबीन और अन्य तिलहन फसलों की बुवाई हो चुकी थी। जबकि इस साल सिर्फ ७७.८० लाख हेक्टेयर में हुई है। सोयाबीन की बुवाई में २१.७४ फीसदी की कमी है। क्योंकि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में बारिश में देरी हुई है। इसकी बुवाई के लिए खेत में नमी की जरूरत होती है।

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२०२२ में बाजरा की बुवाई की स्थिति?

बात करते हैं साल २०२२ में बाजरे के बुवाई की। बाजरा की बुवाई पिछले साल से अधिक हो चुकी है। इस साल ६५.३१ लाख हेक्टेयर में ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का और स्माल मिलेट्स की बुवाई हुई है। जबकि २०२१ में ८ जुलाई तक सिर्फ ६४.३६ लाख हेक्टेयर में हुई थी। बाजरा की बुवाई पिछले साल के मुकाबले इस बार ७९.२६ फीसदी अधिक है. हालांकि, मक्का की बुवाई २३.५३ फीसदी जबकि रागी की ४७.४४ परसेंट पिछड़ी हुई है। ------- लोकेन्द्र नरवार
बारिश में लगाएंगे यह सब्जियां तो होगा तगड़ा उत्पादन, मिलेगा दमदार मुनाफा

बारिश में लगाएंगे यह सब्जियां तो होगा तगड़ा उत्पादन, मिलेगा दमदार मुनाफा

बारिश के मौसम में खेतों में जहां पानी की समस्या नहीं रहती, वहीं ज्यादा बारिश की स्थिति में पैदावार के नष्ट होने का भी खतरा मंडराने लगता है। लेकिन हम बात कर रहे हैं बारिश के मौसम में कम समय, अल्प लागत में पनपने वाली ऐसी सब्जियों की जिनसे किसान वर्ग दमदार उत्पादन के साथ तगड़ा मुनाफा कमा सकता है। आम जन भी इससे अपने घरेलू खर्च में बचत कर सकते हैं। मानसून की बारिश सब्जियों की पैदावार के लिए एक तरह से आदर्श स्थिति है। ऐसा इसलिए क्योंकि बरसात के मौसम में सिंचाई की समस्या से किसान को छुटकारा मिल जाता है। देश के कई हिस्सों में मानसून की दस्तक के साथ ही वेजिटेबल फार्मिंग (Vegetable Farming) यानी सब्जियों की पैदावार का भी बढ़िया वक्त आ चुका है। मानसून का मौसम खरीफ की किसानी के लिए अति महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके अलावा कुछ सब्जियां ऐसी भी हैं जो बारिश के पानी की मदद से तेजी से वृद्धि करती हैं।

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 सिंचाई की लागत कम होने से ऐसे में किसान के लिए मुनाफे के अवसर बढ़ जाते हैं। तो फिर जानें कौन सी हैं वो सब्जियां और उन्हें किस तरह से उगाकर किसान लाभ हासिल कर सकते हैं। 

ककड़ी (खीरा) और मूली

किसानों के लिए सलाद के साथ ही तरकारी में उपयोग की जाने वाली ककड़ी (खीरा) और मूली बारिश में कमाई का तगड़ा जरिया हो सकती है। इन दोनों के पनपने के लिए बारिश का मौसम एक आदर्श स्थिति है। इतना ही नहीं इसकी पैदावार के लिए किसान को ज्यादा जगह की जरूरत भी नहीं पड़ती, बल्कि छोटी सी जगह पर किसान मात्र 21 से 28 दिनों के भीतर बेहतर कमाई कर सकते हैं। 

फली वाली सब्जियां

जी हां हरी-भरी बीन्स जैसे कि सेम, बरबटी लगाकर भी किसान कम समय में अच्छे उत्पादन के साथ बढ़िया आमदनी कर सकते हैं।

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फलीदार सब्जियों के पनपने के लिए जुलाई और अगस्त का महीना सबसे अनुकूल माना गया है। बेलदार पौधे होने के कारण इन्हें लगाने के लिए भी ज्यादा जरूरत नहीं होती। पेड़ या दीवार के सहारे फलीदार सब्जियों की पैदावार कर किसान रुपयों की बेल भी पनपा सकते हैं। मानसूनी जलवायु फलीदार पौधों के विकास के लिए आदर्श स्थिति भी है। 

कड़वा नहीं कमाऊ है करेला

कड़वाहट की बात आए तो भारत में यह जरूर कहते हैं कि, करेला वो भी नीम चढ़ा, लेकिन किसान के लिए कमाई के दृष्टिकोण से करेला मिठास घोल सकता है। दरअसल करेला कड़वा जरूर है, लेकिन यह कई तरीकों से औषधीय गुणों से भी भरपूर है। करेला मनुष्य को कई तरह की बीमारियों से बचाव करने में भी सहायक है। विविध व्यंजनों एवं औषधीय रूप से महत्वपूर्ण करेले की मांग बाजार में हमेशा बनी रहती है। तो किसान बारिश के कालखंड में बेलदार करेले की पैदावार कर अल्प अवधि में बड़ा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। 

हरी मिर्च की खनक और धनिया की महक

कहते हैं न साग-तरकारी का स्वाद हरी मिर्च और धनिया की रंगत के बगैर अधूरा है। खास तौर पर बारिश के मौसम में बाजार में हरी मिर्च और धनिया की मांग और दाम उफान पर रहते हैं। किसान के खेत की मिट्टी बलुआ दोमट या लाल हो तो यह फिर सोने पर सुहागा वाली स्थिति होगी। ये दोनों ही मिट्टी इनकी पैदावार के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं। बारिश के मौसम किसान खेत में, जबकि इसके स्वाद के दीवाने लोग अपने किचन या फिर छत एवं बाग-बगीचे में मिर्च और धनिया को उगा सकते हैं। किचन में उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक की जालीदार टोकनियों में भी पानी की मदद से हरा-भरा धनिया तैयार किया जा सकता है। 

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भटा, टमाटर की पैदावार

वैसे तो बैंगन यानी की भटा और टमाटर की पैदावार साल भर की जा सकती है। लेकिन बारिश का मौसम इन दोनों सब्जियों की पैदावार के लिए बहुत अनुकूल माना गया है। सर्दी में भी इनकी खेती की जा सकती है। तो क्या तैयार हैं आप अपने खेत, छत या फिर बगीचे में ककड़ी, मूली, फलीदार सब्जियों, धनिया-मिर्च और भटा-टमाटर जैसी किफायती सब्जियों को उगाने के लिए।

बारिश के चलते बुंदेलखंड में एक महीने लेट हो गई खरीफ की फसलों की बुवाई

बारिश के चलते बुंदेलखंड में एक महीने लेट हो गई खरीफ की फसलों की बुवाई

झांसी। बुंदेलखंड के किसानों की समस्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रहीं हैं। पहले कम बारिश के कारण बुवाई नहीं हो सकी, अब बारिश बंद न होने के चलते बुवाई लेट हो रहीं हैं। इस तरह बुंदेलखंड के किसानों के सामने बड़ी परेशानी खड़ी हो गई है। मौसम खुलने के 5-6 दिन बाद ही मूंग, अरहर, तिल, बाजरा और ज्वर जैसी फसलों की बुवाई शुरू होगी। लेकिन बुंदेलखंड में इन दिनों रोजाना बारिश हो रही है, जिससे बुवाई काफी पिछड़ रही है।

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बारिश से किसानों पर पड़ रही है दोहरी मार

- 15 जुलाई को क्षेत्र के कई हिस्सों में करीब 100 एमएम बारिश हुई, जिससे किसानों ने थोड़ी राहत की सांस ली और किसान खेतों में बुवाई की तैयारियों में जुट गए। लेकिन रोजाना बारिश होने के चलते खेतों में अत्यधिक नमी बन गई है, जिसके कारण खेतों को बुवाई के लिए तैयार होने में वक्त लगेगा। वहीं शुरुआत में कम बारिश के कारण बुवाई शुरू नहीं हुई थी। इस तरह किसानों को इस बार दोहरी मार झेलनी पड़ रही है।

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नमी कम होने पर ही खेत मे डालें बीज

- खेत में फसल बोने के लिए जमीन में कुछ हल्का ताव जरूरी है। लेकिन यहां रोजाना हो रही बारिश से खेतों में लगातार नमी बढ़ रही है। नमी युक्त खेत में बीज डालने पर वह बीज अंकुरित नहीं होगा, बल्कि खेत में ही सड़ जाएगा। इसमें अंकुरित होने की क्षमता कम होगी। बारिश रुकने के बाद खेत में नमी कम होने पर ही किसान बुवाई कर पाएंगे।

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रबी की फसल में हो सकती है देरी

- खरीफ की फसलों की बुवाई लेट होने का असर रबी की फसलों पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है। जब खरीफ की फसलें लेट होंगी, तो जाहिर सी बात है कि आगामी रबी की फसल में भी देरी हो सकती है।